एक कहावत ही लगती है "जो बोया सो पाया"
क्योंकि हमने तो है जो बोया सो डुबाया ||
दो वक़्त की रोटी, तन पर कपड़ा और सर पर एक साया
पकवानों और महलों पर ना कभी ये जीं ललचाया ||
कर्जे कि ज़मीन को अपने पसीने से सींचा और जान लगाकर हल है चलाया
कभी नकली बीजों ने, कभी असली बारिश ने तो कभी सेठों और दलालों ने है कहर ढाया ||
अपने बाप और भाइयों को बारी बारी है गँवाया
अपनी इज़्ज़त कि अर्थी को भी इन्हीं कन्धों पे है उठाया ||
ऐसी ज़िन्दगी ने ही मौत कि सूली पर है चढाया
मौत ने भी सिर्फ कुछ आंकड़ों को ही बढाया ||
दर-ए-जन्नत से आवाज़ आई - "बन्दे, तूने जो बोया सो पाया"
मालिक लेकिन हमने तो जो बोया सो डुबाया ||
और एक सवाल दिल में उभर कर है आया
इस जन्नत को ज़मीन पर लाने का है कोई उपाया ?
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